Monday, 7 September 2015

माशुका मेरी.....!!!!


ताल्लुक उसके तोड़ लेने पे हम अपना कसूर ढूढ़ने मे पड़े थे,
वो बेरहम जब डोली मे थी; हम जनाज़े की सैर मे थे!!!

गीली लकड़ी से किया था इश्क़ हमने ग़ालिब,
गीली लकड़ी से किया था इश्क़ हमने ग़ालिब,
ना पूरा जला पाए थे और ना अब बुझा पा रहे.
पढ़ कर अगर वाह वाह निकली हो दिल से--
वाह सुने सदिया हो गए लगता है मुझे
.
क्यूकी
वाह तो हम उनके हुश्न पर ही सुना करते थे.
सही सुना आपने-
वाह वाह तो उनके हुश्न पर ही सुना करते थे...
तुमने हालाँकि पुचछा नही की-
"सुना करते थे या खुद वाह वाह कहा करते थे?"


सुना करते थे....!!!
सुना करते थे फिर बोलने वालो को भी चुप करा दिया...
उस नूर परी को अपनी मसूका बना कर...!!

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