काश दीवारें बोलतीं !
मेरे ऑफिस के बगल वाले रेस्टोरेंट की दीवारें मेरे ऑफिस का पूरा गपशप जानतीं और थोड़ा लालच देने पर शायद ऑफिस की चुगलियां करती !
जैसे मेरी बीवी की नाराज़गी का कारण घर की दीवारें ही तो मुझे बतातीं! हाँ हाँ मुझे थोड़ा सा भ्रस्ट बनना पड़ता क्युकी कलयुग में कुछ काम फ्री में हो पाना नामुमकिन जो है।
अक्सर मैंने ये सोचा, बेजुबान इमारतें, या कुछ जीव जंतु जो सामान्यतः बोलते नहीं, उनको कितनी घुटन होती होगी ना ? अपने अनुभव और अहसास को बता पाना, एक वरदान से कम नहीं। फिर हम इंसान क्यों नहीं बतातें ? जिनसे हम इतना प्यार करते हैं या फिक्र करते हैं जिनकी, उनसे जिक्र करने में क्यों कतराते है ?
ओह, हाँ दीवारों से भी हमने अच्छी बातों की जगह केवल चुगलियों की अपेक्षा की थी! अब समझा ?
👌👌
ReplyDeleteQki insaan bhi ab diwar se ban gye hai.. निः शब्द
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